पूंजी के अभाव में पलायन को मजबूर क्षेत्र के कुशल कारीगर
लघु एवं कुटिर उद्योगों को बचाने का प्रयास न तो प्रशासनिक अमला कर रही है और न ही जनप्रतिनिधि
लोहरदगाः सरकारी स्तर पर बेरोजगारों को रोजगार से जोड़ने के लाख दावे किये जाते रहे हों, लेकिन लोहरदगा जिले के लघु एवं कुटिर उद्योगों को बचाने का प्रयास न तो प्रशासन कर रही है और न ही जनप्रतिनिधि! फलतः यहां के कुशल कारीगर दूसरे राज्यों में पलायन करने को मजबूर हैं। रोजगार के अभाव में युवा वर्ग अपराधिक एवं नक्सली गतिविधियों में शामिल हो रहे हैं। जिले के कुड़ू प्रखंड स्थित जिमा बढ़ई टोली में लकड़ियों से चकला-बेलना एवं अन्य घरेलू उपयोग के चीजों को निर्माण करने वाले 100 से अधिक कुशल कारीगर इन दिनों बेरोजगारी का जीवन जी रहे हैं। देढ़ सौ घरों वाले उक्त ग्राम में महिला-पुरूष इस लघु उद्योग में कुशल कारीगर हैं। लकड़ी की अनुपलब्धता एवं पूंजी के अभाव में वे वर्षों से बेरोजगारी का जीवन जी रहे हैं। यहां के 7-8 घरों के कुछ कारीगर अब भी अपने पूर्वजों के कलाकारी के धरोहर को अपनाए हुए हैं। वे किसी तरह से अपने बच्चों का पेट भर रहे हैं। कारीगर मंगरा मिस्री और उसकी पत्नी खुदनी देवी उन्हीं कुशल कारीगरों में से एक हैं, जो अपने पूर्वजों के इस धंधे को पिछले 25-30 वर्षों से लगातार कर रहे हैं। लेकिन उनके पास न तो पर्याप्त पूंजी है और न ही लकड़ी की उपलब्धता, जिसके कारण वे किसी तरह से अपने बच्चों के पेट भर रहे हैं। उसी ग्राम के हवलदार मिस्री, धीरेन्द्र मिस्री, सुनिता देवी आदि मायूसी के साथ बताते हैं कि विगत 5-6 वर्षों से वे प्रखंड एवं जिला प्रशासन तथा स्थानीय जनप्रतिनिधियों से लिखित अनुरोध किया गया, लेकिन उन्हें सिर्फ आश्वासन ही मिले हैं। अब तक उन्हें किसी तरह की न तो व्यवस्था दी गई और न ही कोई सहायता। वन विभाग द्वारा भी लकड़ी की व्यवस्था नहीं दी जाती। मजबूरन उन्हें टिम्बरों पर निर्भर रहना पड़ रहा है, जो काफी महंगे होते हैं। लक्षमण मिस्री कहते हैं कि पहले छोटे बच्चों का पहला खिलौना लकड़ी से बनी तीन चक्कों वाली गाड़ी ही हुआ करती थी। तब वॉकर का चलन छोटे शहरों-कस्बों में नहीं था तब इन्हीं गाड़ियों के सहारे बच्चे चलना भी सीखते थे। लेकिन आजकल बजारों में प्लास्टिक के खिलौने, अल्युमिनियम और लोहे से बने चकला-बेलना, दाल घोटनी, नींबूनिचोड़, लट्टू, बच्चों की गाड़ियां आदि आ गये हैं। जिसके कारण उनकी बनायी वस्तुएं कम बिकती हैं। अब तो उनके लिए पेट पालना भी दुश्वार हो गया है। मंगरा मिस्री कहते हैं कि दस-पन्द्रह वर्षों पूर्व तक जिमा बस्ती में पटना, कलकत्ता, बनारस जैसे महानगरों से बड़े व्यापारी आकर थोक के भाव में उनके बनाए वस्तुओं को ले जाते थे। अब एक साथ उतनी मात्रा में नहीं बनने के कारण वे नहीं आते, मजबूरन उन्हें स्थानीय बजार-हाटों में बेचना पड़ता है, जहां अच्छे दाम नहीं मिलते। यही वजह है कि यहां के कुशल कारीगर दूसरे राज्यों में पलायन कर रहे हैं अथवा अपराधिक एवं नक्सली गतिविधियों में शामिल हो रहे हैं।